गुरुवार, 14 अगस्त 2014

औपनेवेशिक काल में चले लम्बे स्वतन्त्रता संग्राम...............

औपनेवेशिक काल में चले लम्बे स्वतन्त्रता संग्राम ने हमारे देश की संवैधानिक बुनियाद रखी और ब्रिटिश औपनेविश के दमनकारी नीतियों से लड़ने के साथ साथ हमें अपने सामाजिक बुराइयों से भी लड़ने पर भी विवश किया परिणामस्वरूप आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक समाजवादी दृष्टिकोण वाले देश के नागरिक हैं। गैर बराबरी मिटाने के लिए तमाम सामाजिक सुधारों को क़ानूनी रूप दिया गया और लेकिन इन तमाम सुधारों के बीच हमने सामंतवाद को भी जिन्दा रखने के भी हरसंभव प्रयास किये । आर्थिक विकास के नाम पर लोकतन्त्र के समानांतर एक निरंकुशतंत्र भी खड़ा  किया जहाँ अच्छी और चौड़ी सड़के विकास के लिए आवश्यक परिस्थति का निर्माण करती हैं वहीँ देश में होने वाली सड़क दुर्घटनाओँ का 40 % प्रतिशत पैदल राहीयों के साथ होता है, महानगरों में लाखों लोग फूटपाथ पर सोते हैं । इन घटनाओं के बावजूद अब तक कोई भी सरकार इस दिशा में गम्भीर नहीं दिखाई देती । और ऐसी बात भी नहीं है की सामन्तवाद बाहर से आया या कोई नयी चीज़ है सामंतवाद तो हमारे समाज में शुरू से विद्यमान था अब बस कुछ हद तक उसका स्थानान्तरण सामाजिक से राजनैतिक रूप में हो गया है। हालाँकि राजनैतिक परिस्थितियाँ कहीं कहीं सामन्तवाद का विरोध करती है लेकिन वो सारी ताकतें अब इस संक्रमन्कारी अन्धेराष्ट्रवाद के आगे कमजोर प्रतीत होती है। जिस तरह इतिहास में धर्म और देवालय शाशक के साथ खड़े रहते थें बिलकुल वैसे ही आज मीडिया एक खास शाशक वर्ग के साथ खड़ा है । चुनाव दर चुनाव संसद में दागियों और करोड़पतियों की बढ रही संख्या लोकतन्त्र में सामन्तवाद के जिन्दा रहने का एक उदहारण होने के साथ सामंतवाद को मजबूत करने की कोशिश भी है। सामाजिक तौर पर देखा जाये तो चम्बल क्षेत्र के घरों में लाइसेंसी बन्दूको का होना लेकिन घरों में शौचालयों का ना होना, लड़के के पढाई को लड़की के पढाई के अपेक्षा ज्यादा तवज्जो दिया जाना दोनों ही व्यवहार पित्रसत्तातमक सामंतवाद की निशानी है और ये कहानी पुरे हिंदी भाषी क्षेत्रो की है। स्मार्ट सिटी पर चर्चा और योजना बनाया जाना जबकि देश के हर गाँव में बिजली पहुंची नहीं और जहाँ विधुत नेटवर्क है वहां 8-10 घंटे बिजली मिल रही है फिर भी शहरों में मुफ्त वई-फई नेटवर्क और तो और स्टेडियम क्लबों को रात्रि आयोजनों के लिए बिजली चाहिए । शहरों का विकास अब गाँवों के मूलभूत आवश्यकताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है , उसकी वजह भी मीडिया है शहरी और सम्पन्न लोगो से भरी मीडिया खबरों के चयन में वर्गहित को भी ध्यान में रखती है। भारतीय रेल में हम अपने समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को देख सकते हैं और यही आर्थिक वर्गीकरण जनसुविधा प्राप्ति का आधार है । उदाहरण के तौर पर पैसेंजर गाडियों के अनारक्षित बोगियों में ठुसे लोग को नजरंदाज़ किया जाना और फर्स्ट क्लास के यात्रियों के सेवा में तत्परता रेलवे की नियति है। हमारे देश का सम्पन्न वर्ग अपने ही देश में  विदेशियों की तरह जीवनयापन करता है अफसर समाज से विलगित रहते हैं। दरअसल हम एक दो मुहें समाज में जी रहें है । अंशु शरण 9415362110

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