सोमवार, 2 मई 2011
Pahal A milestone (युवाओं की पहल ---- "पहल - अ माइलस्टोन"): · यहाँ रिश्ते ‘रिस्ते ’…..हैं
Pahal A milestone (युवाओं की पहल ---- "पहल - अ माइलस्टोन"): · यहाँ रिश्ते ‘रिस्ते ’…..हैं: " अगर एक ओस की बूँद किसी पत्ते को नमी दे तो उस बूँद का पत्ते से भला क्या रिश्ता होगा ?वो ही एक बूँद आँखों में भी ..."
· यहाँ रिश्ते ‘रिस्ते ’…..हैं
अगर एक ओस की बूँद किसी पत्ते को नमी दे तो उस बूँद का पत्ते से भला क्या रिश्ता होगा ?वो ही एक बूँद आँखों में भी बसर करती है ख़ुशी हो तो भी छलक जाती है और ग़म में तो झर - झर बरसती है और मन में कई बार ये सवाल दे जाती है की आखिर रिश्ता क्या है ?
इस दुनियां में हम सब कोई न कोई रिश्ता निभा रहे हैं .कुछ अपनों के साथ तो कुछ परायों के साथ .कुछ चाहकर तो कुछ न चाहते हुए भी मजबूरी या किसी मतलब या सिर्फ फ़र्ज़ की खातिर बस निभाए चले जाते हैं .ये तो हुआ इन रिश्तों को निभाने का एक पहलु पर आज के इस नए दौर में जहाँ कुछ रिश्ते मतलब से निभाए जाते हैं वहीँ रिश्तों को छोड़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है .आजकल ज़्यादातर सभी अपनी ego,status,जिद्द ,why to compromise?aur price tags जैसी बातों से घिर चुके हैं .Develop होते -होते आज काफी हद तक हम खोखले ही तो होते जा रहे हैं .सच्चाई ,ईमानदारी ,इन्सानियत शायद ही कुछ लोगों में बची है .अब तो ऐसी बातें हम किस्सों और कहानियों में ही पढ़ सकते हैं . क्यूँकि आजकल जो ऐसा होगा वो गरीब ही मिलेगा -रुपयों से ,खुशियों से ,किस्मत से और रिश्तों से भी .तो फिर जो लोग आज के दौर में materialistic हो गए हैं उन बेचारों का भी क्या दोष ये तो दुनियां टेढ़ी है तो हम भी टेढ़े बन गए .
वैसे अगर हम रिश्तों की बात करें तो कभी तो ये बहुत गहरे होते हैं और कभी कच्ची डोर की तरहां नाज़ुक ज़रा सा खिचाव हुआ नहीं की टूट गए , फिर क्या कमिटमेंट और कैसा वादा.आज हम एक जानवर से दोस्ती करने के लिए तैयार हैं ये सोचकर की वो वफादार रहेगा पर खुद के अन्दर के जानवर का क्या ?यहाँ तो खून के रिश्ते ज़ख़्मी हो जाते हैं और अपनापन कब सिसकियाँ लेते -लेते दम तोड़ देता है पता ही नहीं चलता .फिर चाहे कोई रूठे कुछ भी टूटे हम सिर्फ दिखावे पर भरोसा करते हैं ,और इसके लिए खुद को भी धोखा देने से बाज़ नहीं आते. फर्क सिर्फ एक नज़रिए और छोटी सी सोच का होता है जो दोस्ती ,प्यार ,औलाद के खयाल और शादी के बंधन को भी कहीं दूर लेजाकर छोड़ देता है इतना दूर जहाँ एक दुसरे की आवाज़ कभी पहुंच ही नहीं पाती .कोई गलत नहीं है बस हम सब ज्यादा सयाने हो गए हैं इसीलिए तो हर चीज़ को ख़त्म करना आसान हो गया है .
पहले तो लोग रिश्तों को अपनी जमा पूँजी मानते थे .पर आजकल अगर आप ज्यादा रिश्ते नातों में पढ़ गए तो पूँजी कहाँ जमा हो सकती है .अजीब विडम्बना है किसे दोष दें वक़्त को जो कीमती तो था ही अब महँगाई की सीढ़ी भी चढ़ता जा रहा है या इन्सानियत को जो न जाने किसके डर से कहीं छुप के जा बैठी है .रिश्तों के मुरझाने का एक जीता जागता उदाहरण है Honour killing.सिर्फ शब्द ही तो नया है बाकि सब वो ही पुराना .वैसे बात चाहे किसी भी ज़माने की हो यहाँ हम अपनों के लिए कम और समाज की परवाह के लिए ज्यादा जीते हैं .ये चलन तो सदियों से चला आ रहा है .सिर्फ सोच पर पर्दा हो तो फिर भी हट जाये पर इस रिश्ते के परदे पर तो सिलवटें भी पढ़ जाती हैं .जो हमें नुक्सान ही तो देती हैं .एक ऐसी Race है जो जीत और सुकून नहीं सिर्फ थकान देती है .
टालते -टालते बात भी टल जाती है और समय भी और हम सब सुकून ,शांति और मोहोब्बत ढूँढ़ते रह जाते हैं उस ही धुएं में जो हमने खुद फैलाया होता है .फिर कुछ नज़र नहीं आता और हम गलती पे गलती करते रहते हैं कभी खोये हुए रिश्तों की खुंदक उतारने के लिए तो कभी एक ख़ुशी ढूँढने के लिए . हम पहचान ही नहीं पाते सब कुछ आस पास ही होता है पर नज़र आने में दिक्कत होती है क्यूँकि माहौल में ये नफरत और दिखावे की आग हम ही जलाते हैं .कभी जो सूखे मन को अपनेपन की नमी मिला करती थी वो नमी तो खुद प्यासी हो गयी पलकें अब भी भीगती हैं पर उस धुएं की चुभन से .कभी रास्ता ढूँढ़ते हुए कोई अपना बन जाता है तो कभी मंजिल तक पहुंचते -पहुंचते किसी का साथ छूट जाता है .खुदा से ,इंसान से ,रुपयों से या फिर किसी भी लक्ष्य से एक रिश्ता ही तो बन जाता है रास आये तो आबाद कर जाता है वरना यूँ ही नचाता रहता है .और कभी अकेले रह जाते हैं हम अपनी “मैं ” के साथ ……मरते दम तक बस ……. खोजते ही रहते हैं .क्यूँकि इस ज़माने में लोग नहीं जज़्बात बदलते हैं . और येही सिलसिला एक सवाल दे जाता है की आखिर रिश्ता क्या है ??
Written By-
Richa Maniktala.
Pahal A milestone (युवाओं की पहल ---- "पहल - अ माइलस्टोन"): और कबतक ??
Pahal A milestone (युवाओं की पहल ---- "पहल - अ माइलस्टोन"): और कबतक ??: " के जल रही थी आग एक चमन था फूलों का नज़र नहीं आता नज़ारा जलते चूल्हों का कुछ खौफ़ हैं खाए अब दिया कौन जलाए उसकी ही..."
और कबतक ??
के जल रही थी आग एक चमन था फूलों का
नज़र नहीं आता नज़ारा जलते चूल्हों का
कुछ खौफ़ हैं खाए अब दिया कौन जलाए
उसकी ही लपट ने मेरा आँगन जला दिया.
जो हुआ करती थी इबादत उस लौ से कभी
उस मूरत को खंडित करके कल मोल लगा दिया
आँख भी थी आवाज़ भी थी राहों की आगाज़ भी थी
अपनों ने नैन मूँद लिए आवाज़ को कुछ ने दबा दिया.
ऐसा नहीं था के सन्नाटा था
भीड़ भी थी इंसान भी थे
पर हाथ जलाये कौन अपना
कुरसी कैसे पकड़ेंगे
हाथ सेक कर चले गए.
कुछ लक्ष्मी के भक्त थे
कुछ ने मौन व्रत था ग्रहण किया.
जो आज़ाद न था ये देश गैरों के हाथों लुटता था
अब अपनों का अम्बार है
पर अपनों की गुहार है
जो था बड़ा नायाब कितना राख बना दिया.
आओ फिर से करें फ़क्र ये ही वो हिंदुस्तान है
पाए जाते कम इंसान हैं
रोज़ है यहाँ आबरू लुटती-रोज़ कितनी बली हैं चढ़ती
कहीं बच्चों में भी शैतान है
कुछ बूढ़े भी हैवान हैं
एक औरत को आज़ाद किया
एक को आघात किया
हाँ इस चमन के ही तो चिराग थे
के अपना आँगन जला दिया.
एक ऐसा अंधकार किया
के डरता है जलता दिया
RICHA
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