गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

मत मारो जन्म से पहले,

हो सकता है कि कुछ लोग हमारी बुद्धि पर ही संशय करें, पर इतना तय है कि जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को लेकर चीखते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का परिणाम मानते हैं। टीवी और समाचार पत्रों के समाचारों में लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिमान लोग इसे समस्या मानकर इसे रोकने के लिये सरकार की नाकामी मानकर हो हल्ला मचाते हैं। उन लोगों से हमारी बहस की गुंजायश यूं भी कम हो जाती हैं क्योंकि हम तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानते है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही स्थिति को दर्शाती हैं। इस पर चिंता करने वाले कन्या भ्रूण हत्या के परिणामों को अनदेखा करते हैं।
        इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या करने का फैशन करीब बीस-तीस साल पुराना हो गया है। यह सिलसिला तब प्रारंभ हुआ जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली अल्ट्रासाउंड मशीनका चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज में लिंग अनुपात की  स्थिति को बहुत बिगाड़ दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना है। जिन लोगों को इसमें आपत्ति हो वह पहले कन्या भ्रुण हत्या के लिये तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करते हुए उस उचित ठहरायें वरना यह स्वीकार करें कि कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।
           जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत हुई तब समाज के विशेषज्ञों ने चेताया था कि अंततः यह नारी के प्रति अपराध बढ़ाने वाला साबित होगा क्योंकि समाज में लड़कियों की संख्या कम हो जायेगी तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। इस चेतावनी की अनदेखी की गयी। दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी।
                  कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों के जन्म के बीच अंतर अधिक है तो समझ लीजिये कि कहीं न कहंी कन्या भ्रुण हत्या हुई है-ऐसा एक सामाजिक विशेषज्ञ ने अपने लेख में लिखा था। अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व से प्रारंभ  सिलसिला है और दहेज प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की बात एक दिखावे के लिये करते हैं। अगर लड़कियां कम होंगी तो अपने आप यह प्रथा कम हो जायेगी, पर यह हुआ नहीं।
            इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। इस कारण लड़कों से रोजगार के अवसरों में भी आकर्षण शब्द गायब हो गया है। लड़कियों के लिये वर ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी के लिये आकर्षक जीवन की तलाश करते पिता को अब भी भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य तथा विवाहों में बिना मतलब के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।
           फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं  तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे। दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है।
हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो नारीवादी बुद्धिमान लोग उखड़ जाते हैं। उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है और राज्य व्यवस्था उसको हर कदम पर सुरक्षा दे तो यह एक काल्पनिक स्वर्ग की स्थिति है। यह नारीवादी बुद्धिमान नारियों पर हमले होने पर रो सकते हैं पर समाज का सच वह नहीं देखना चाहते। हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में मध्ययुगीन स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं  बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को आतुर है।

अंकित पाण्डेय

आम आदमी पार्टी और उसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल की धमाकेदार

आम आदमी पार्टी और उसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल की धमाकेदार , या यूँ कहे विलक्षण ऐतिहासिक जीत ने जहाँ एक और भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्त नेतृत्व  यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी के आत्मा विशवास की चूलें हिला दी हैं वहीँ  दूसरी तरफ भाजपा के अध्यक्ष और अभी तक देश के कई राज्यों के चुनाओं में अपनी योग्य कार्यक्षमता से  भाजपा को ताल ठोककर विजय श्री दिलाने वाले मोदी के ख़ास चहेते अमित शाह को भी मात देने का काम किया है. पिछले ९ महीने से सत्ता के नशे में चूर और राजनैतिक आत्मविश्वास से सर से पैरों तक सराबोर अमित शाह ने शायद सपनों में भी कभी सोचा नहीं होगा की भारत की राजधानी दिल्ली में उन्हें इस कदर , राजनीती के नौसिखिया और मात्र दो वर्ष पुराने दल के मुखिया से मुह की खानी पड़ेगी. इस हकीकत में भी कोई दो राय नहीं है की यदि हम सिक्किम के नतीजों को छोड़ दें तो हिंदुस्तान के इतिहास में आम आदमी पार्टी वास पहला राजनैतिक दल है जिसने इतने बड़े पैमाने पर यानि ९६ फीसदी सीटें जीतकर रिकॉर्ड कायम किया है. मात्र दो वर्षों के छोटे से अंतराल के दौरान निरंतर दो मर्तबा बतौर मुखिया मंत्री सत्ता पर काबिज होने वाले केजरीवाल वह विलक्षण शख्सियत हैं जिन्होंने कुछ वर्ष पहले  आई आर एस की महत्वपूर्ण नौकरी छोड़कर , दिल्ली के झुग्गी झोंपड़ी बस्ती में रहकर परिवर्तन नाम की गैर सरकारी संस्था के माध्यम से गरीबों की सेवा की, बाद में अन्ना  के जनलोकपाल आंदोलन के मार्फत देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा और फिर अपने राजनैतिक पार्टी बनाकर दो वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस और छे सात दशक पुरानी भाजपा, जो पहले जनसंघ थी को दिल्ली में चारों खाने चित कर धराशाई कर दिया. दिल्ली के इस चुनाव में भाजपा को मिली करारी हार ने निसंदेह मोदी साहिब की निरंतर  बढ़ती लोकप्रियता पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाया है हालाँकि भाजपा के शीर्ष नेता इस बात  को नहीं मानते . इस चुनावी सुनामी में भाजपा के तमाम दिल्ली क्षत्रप बुरी तरह चुनाव हार गए यहाँ तक की इनकी मुख्यमंत्री प्रत्याशी जो देश की पहली आई पी अस्स अधिकारी थी और समाज में ईमादारी का रुतबा रखती थी भी अपनी सीट नहीं बचा पायी. दरअसल , दिल्ली के इस चुनाव ने भाजपा और कांग्रेस दोनों को सबक सिखाया है. ये सबक था इन दलों के नेताओं का जमीनी पार्टी कार्यकर्ताओं से संपर्क टूटने का, इनमे अहम आने का, इनका और इनकी पार्टी का अकूत भ्रस्टाचार में पूरी तरह सराबोर होने का और इनके रवैये में अहंकार और अर्रोगन्स के आने का. एक तरफ जहाँ भारतीय जनता पार्टी जनता के जड़ जमीन के मुद्दों को अपने पक्ष में नहीं भुना पायी वाही दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल ने मुफ्त या आधे दामो पर  बिजली पानी , फ्री वई फाई देने, दिल्ली के हजारों ठेके के कर्मचारियों और होम गार्ड के जवानों को पक्का करने जैसी अनेकों घोषणाओं को अविलम्ब पूरा करने के अपने वायदों से जनता का दिल जीत लिया और कांग्रेस के लाखों लाख झुग्गी झौंडी बस्तियों , उनऑथोराइज़ कालोनियों के वोट अपने कब्जे में कर लिय. नतीजतन उन्हें ६७ विधान सभा सीटों में जीत का ऐतिहासिक बहुमत मिला जबकि भाजपा को मात्र तीन सीटों पर ही सिमटने को मजबूर होना पड़ा. कांग्रेस तो शुन्य पर ही चली गयी. दरअसल , भाजपा को उनके शीर्ष नेतृत्व के बड़बोलेपन ने भी जमीन दिखाई. मसलन मोदी साहब ने अपने भाषणों में केजरीवाल को बदकिस्मत और नक्ससली तक कह डाला. और ऊपर से भजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने काले धन पर मोदी शब द्वारा संसदीय चुनावों में हर हिंदुस्तानी के खाते में आने वाले १५ लाख की रकम को ये कहकर झुटला दिया की ये तो मोदी साहब का झोटा बयान था , मात्र चुनावी जुमले जिसे लोगों ने ये समझा की इसके मायने तो ये हुए की प्रधानमंत्रीजी के अभी तक के सभी आश्वासन खोरे झूट और सिर्फ छुनवी जुमले ही होंगे. यही नहीं बल्कि किरण बेदी को ऊपर से टपका कर मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर भी भाजपा नेतृत्व ने भरी जोखिम मोल लिया क्योंकि किरण बेदी अपने बड़बोलेपन के चलते तो फ़ैल हुई ही लेकिन उनके अचानक आने से पार्टी के दिल्ली स्तर के नेता स्वयं को राजनैतिक तौर पर असुरक्षित महसूस करने लगे, ख़ास कर वे नेता भीतर ही भीतर  जो वर्षों से मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब  संजोये बैठे थे.  इसके ऊपर कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी से डेफेक्शन को इंजीनियर कराकर बहरी नेताओं को पार्टी में लाकर टिकेट देना भी भाजपा के लिए व्यापक पैमाने पर अहितकर हुआ. इसका बुरा नैनीता ये निकला की भाजपा का वोट बैंक ४३ फीसदी से घटकर ३२ फीसदी तक पहुंच गया और कांग्रेस २५ फीसदी से सिमटकर १० फीसदी तक पहुंच गयी जबकि आम आदमी पार्टी को ५६ फीसदी वोट बैंक हासिक हो गया जो अपने आप में ऐतिहासिक था. इसके अलावा देश के तमाम गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दलों जैसे आर जे दी, जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और दोनों कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन ने भी आप के वोट बैंक को बढ़ाने का काम किया. कुल मिलकर यदि ये कहा जय की आप और केजरीवाल को मिली ये जीत सदी की सबसे बड़ी जीत है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्यों मात्र दो वर्षों के अल्पकाल में पैदा हुईं पार्टी के ये चौकाने वाले नतीजे निसंदेह न सिर्फ हर दृष्टि से हैरतअंगेज थे बल्कि उनपेक्षित भी थे. किसी ने कभी भी ऐसे नतीजों की शयद उम्मीद नहीं की होगी. कहिर जो भी हो अब केजरीवाल के सामने चुनौतियाँ असंख्य हैं और जनता की उनसे अपेक्षाएं भी अनगिनत हैं. देखना होगा की वे  अब इस अब्सोलुत मेजोरिटी के चलते किस आत्मविश्वास के साथ अपना साशन चलते हैं और कितनी तेजी और खारेपन के साथ जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतारते हैं. हाँ इतना अवश्य है, की इस जीत ने आम आदमी पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्तर की राजनीती के किये भी दरवाजे खोल दिए हैं और देश के अन्य राज्यों में भी गरीब, असहाय, पीड़ित और कुंठित जनता और युवा उनका खुले दिल से इंतज़ार कर रही है. बस जरुरत इस बात की है की दिल्ली में आने वाले समय में अरविन्द केजरीवाल कैसे परफॉर्म करते हैं.
सुनील नेगी
अध्यक्ष 
उत्तराखंड जर्नलिस्ट्स फोरम 

उत्तराखंड राज्य को पृथक अस्तित्व में आएं १४ वर्ष

उत्तराखंड राज्य को पृथक अस्तित्व में आएं १४ वर्ष से अधिक का समय हो गया  हैं और मौजूदा मुख्यमंत्री  हरीश रावत ने भी अपना एक वर्ष का  कार्यकाल पूरा कर लिया है. जहाँ  अलग राज्य प्राप्त करने के संघर्ष में लगभग ५६ आंदोलनकारियों ने अपनी वैशकीमती जानो की क़ुरबानी दी वहीँ राज्य के मुख्यमंत्री का ताज पहनने के लिए हरीश रावत को खासी मशक्कत करनी पढ़ी. हरीश रावत भले ही कांग्रेस पार्टी के पहाड़ के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता रहे हों जिन्होंने अपने राजनैतिक जीवन में उत्तराखंड में अपनी लोकप्रियता निरंतर बनाये रखी लेकिन उत्तराखंड राज्य के जंझावतो, संघर्ष  को झेलने, उसमे शामिल रहने और इस मांग को कांग्रेस पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल कराने के बावजूद उन्हें कड़े संघर्षों और लम्बी प्रतीक्षा के बाद प्रदेश के आठवें मुख्यमंत्री के ताज पहनने को मिला. हरीश रावत की खासियत है की वे पहाड़ की  नब्ज को पहचानते हैं. वहां की हर समस्या, वहां के भूगोल और जनता के दर्द को भली भाँती  समझते हैं  उनके समर्थक उत्तराखंड में भiरी तादाद में हैं. हरीश रावत को सरकार चलाने  का  खासा अनुभव है और वे उत्तराखंड की हर समस्या और उसके निदान के रास्ते भी बाखूबी  जानते हैं. आखिर उन्होंने मौजूदा मुख्यमंत्री के पद के लिए एक ग्राम प्रधान से शुरुआत कर ४० वर्षों के संघर्ष का  लम्बा सफर जो तय किया है. उनके राजनैतिक विरोधी चाहे वो सतपाल महाराज रहे हों या फिर विजय बहुगुणा , आज पूर्ण रूपेण धराशाही हैं. उत्तराखडं की राजनीती में हरीश  रावत की पकड़ ठीक उतनी ही मजबूत है जैसे केंद्र में मोदी की अपनी सरकार पर पकड़. लेकिन क्या इन सब खूबियों और  सकारात्मकता के  बावजीद उनका काम काज ठीक चल रहा है. ये एक बहुत बड़ा सवालिया निशाँ है. रावत आज उत्तराखंड में बेहद मोबाइल हैं, सक्रिय हैं. नयी नयी योजनाओं के जनता को सब्जबाग दिखाकर उन्हें अपनी और आकर्षित करने के रोज नए नए रास्ते तलाश रहे हैं. उन्होंने पहाड़ की भ्रष्ट अफसरशाही को भी सक्रीय करने और उसपर शिकंजा कसने में काफी सफलता दर्ज़ की है. लेकिन क्या वह सब कुछ ठीक ठाक है. कहने वाले कह रहे हैं की रावत इन दिनों अपने  ख़ास सिल्पेसलार और चाटुकारों से घिरे हैं और उन्होंने राज्य में साशन को पूर्ण रूपेण व्यक्तिवादी साशन में परिवर्तित कर दिया है, जहाँ मंत्रीगणों की भूमिका लगभग नगण्य है. भले ही राज्य में विकास के कितने बड़े दावे क्यों न किये जा रहे हैं, लाखों करोड़ों रुपये के विज्ञापनों के माध्यम से जनता जनार्दन को ढेरों उपलब्धियां गिनाई  जा रही  हो  लेकिन  बहुत ही दुःख के साथ कहना पड़ता हैं की जिस अवधारणा के लिए वर्षों के संघर्षों के बाद उत्तराखंड राज्य अलग अस्तित्वा में आया हमारे राजनैतिक हुकमरानों की भाई भतीजावाद, अवसरवादिता, अकर्मण्यता, जनविरोधी और भ्रष्टारोन्मुख नीतियों के चलते पहाड़ों से आज भी बेतहाशा पलायन जारी है. त्तiजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य बनने के १४ वर्षों के दौरान लगभग बीस लाख पर्वतवासियों ने shaहरों की तरफ पलायन किया. जबकि राज्य बनने से पहले ये पलायन की गति काफी धीमी थी. जाहिर बात हैं की उत्तराखंड में गुणवत्ता युक्त शिक्षा के आभाव, स्वस्थ्य सेवाओं के न होने और रोजगार के अवसरों की नागुंजायश के चलते पहाड़ का नवयुवक बहुत ही तेजी से शहरों की तरफ पलायन कर रहा है. आंकड़ों के मुताबिक लगभग 60 फ़ीसदी युवक गाओं से पलायन करता हैं जबकि शेष ४० फीसदी पहाड़ के शहरों से सम्बद्ध हैं. इतनी बड़ी संख्या में पलायन यही साबित करता है की पिछले १४ वर्षों के दौरान उत्तराखंड में शासनरत भाजपा और कांग्रेस की सरकiरें बुरी तरह असफल ही साबित हुई हैं. ये जान कार हैरानी होती है की राज्य के अस्तित्व में आने के बाद अiठ बार सरकारें बदली हैं. प्रदेश में हमेशा राजनैतिक अस्थिरता का वातावरण रहा जिसके चलते वहां के आर्थिक, सामाजिक, औद्योगिक, शैक्षणिक और स्वiस्थ्य सम्बन्दी विकास सही ढंग से सिरे नहीं चढ़ पाया और जनता , खासकर पढ़ा लिखा तबका शेहरों  की चकाचौंध में रोजगार, स्वस्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के दृष्टिकोण से महानगरों की ओर रुख करता रहा. यदि सही अर्थों में हम ये कहें की राज्य बनने कa असली फायदा पहाड़ों के ठेकेदारों, भ्रष्ट अधिकारीयों, बिल्डर माफियाओं , खनन माफियाओं और राजनेताओं को हुआ तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी. जिन नेताओं के पास उत्तराखंड के पृथक अस्तित्व में आने के बाद एक साइकल तक नहीं होती थी आज उनके बड़े बड़े बंगले, होटल और पीजैरो गाड़ियों का काफिला उनकी शान में चार चाँद लगा रहा है. अगर ईमाnदारी से आज उत्तराखंड के राजनेताओं की सम्पति का लेख जोखा लिया जाy तो ये बात कहने में कोई हीचकिचाहat नहीं होगी की वहां का प्रत्येक राजनेता कथित तौर पर आज करोड़ों का मालिक है. खैर, सच बात तो ये है की पहाड़ आज खुले आम लूट रहे हैं, और वहां के पर्यावरण का खुलेआम चीरहरण हो रहा है. आज वहां खनन जोरों  पर चल रहा है, नदियों पर बड़े बान्धों  के नाम पर वहां  के पर्यावरण के साथ बलात्कार जारी है, नदियों के किनारे हो रहे गैर वैज्ञानिक कंस्ट्रक्शन से जनता कee जान सांसत में हैं, बड़े बाँध के नाम पर पहाड़ों की ऐतिहासिक नदियों की धiरा को रोकने का काम चल रहा है, वहां जंगलों का अन्दiधुन कटान जारी है और विकास के नाम पर सड़कों के निर्माण की आड़ में लाखों डायनामाइट एक्सप्लोषंस हो रहे हैं जिसके चलते पहाड़ खhoकले और हरियाली विहीन हो रहे हैं. केदारनाथ की त्रासदी को इसीलिए मानवजनित आपदा की संज्ञा दी जा रही है. पहाड़ों में अछि शिक्षा, स्वस्थ्य सेवाओं के आभाव के चलते लगभग ३०० गाँव पूरी तरह से खiली हो चुके हैं और करीब डेड हज़ार गाओं लघभग खiली होने की स्थिती में हैं. पहाड़ों के शहरों का तो विकास हो रहा है. वहां बiहरी पूंजीपतियों को औने पौने दामों पर जमीने तो दी जा रही हैं उद्योगों के लिए, लेकिन क्षेत्रीय जनता को इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा. सारे रोजगार के अवसर बाहरी लोगों की झोली में जा रहे हैं.  गाॉवों में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के आभाव  और वहां से  निरंतर हो रहे पलायन के मध्येनजर लगभग ९०० प्राथमिक विद्यालयों को जबरन बंद  करना पड़ा.  पहाड़ों में कानों व्यवस्था के चौपर होने से वहना  आये दिन हत्याओं का दौर जारी है. बाहरी अपराधी उत्तराखंड को सबसे सुरक्षित डेस्टिनेशन मान कर यहाँ पलायन कर रहे हैं और अपनी अपराधिक गतिविधियाँ जारी किये हुए है. यहाँ का पुलिस प्रसाशन लगभग अकर्मण्य  है और अपराध रोकने के मामले में पूर्णतया अक्षम है. यही वजह है की दुनिया के नक़्शे में धार्मिक पर्यटन, ईको पर्यटन के बड़े बड़े बखान करने वाले उत्तराखंड में आज भी टूरिस्टों का आभाव है. कुल मिलकर यदि ये कहा जाe की उत्तराखंड पृथक राज्य बनने के बाद पलायन को बढ़ावा देने का कारण बना तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आज यदि उत्तराखंड को सही मायनो में तरक्की करनी है और पलायन को रोकना है तो वहां  शिक्षा के अवसर, राजगार के अवसर और स्वस्थ्य सेवाओं में बड़े पैमाने पर सुधार करना होगा. राज्य जिस अवधारणा के लिए अस्तित्व में आया उसे सही अर्थों में अमलीजामा पहनना होगा और वह तभी संभव है जब सरकir और उसके नुमाइंदे पूरी ईमानदारी, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ वहi के पढ़े लिखे युवकों, वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, और सही सोच रखने वाले लोगों को सरकार में भागीदारी प्रदान करेगी. वरना आने वाले दिन पहाड़ के liye और ही विनाशकारी साबित होंगे.
सुनील नेगी
अध्यक्ष उत्तराखंड जर्नलिस्ट्स फोरम