उत्तराखंड राज्य को पृथक अस्तित्व में आएं १४ वर्ष से अधिक का समय हो गया हैं और मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी अपना एक वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया है. जहाँ अलग राज्य प्राप्त करने के संघर्ष में लगभग ५६ आंदोलनकारियों ने अपनी वैशकीमती जानो की क़ुरबानी दी वहीँ राज्य के मुख्यमंत्री का ताज पहनने के लिए हरीश रावत को खासी मशक्कत करनी पढ़ी. हरीश रावत भले ही कांग्रेस पार्टी के पहाड़ के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता रहे हों जिन्होंने अपने राजनैतिक जीवन में उत्तराखंड में अपनी लोकप्रियता निरंतर बनाये रखी लेकिन उत्तराखंड राज्य के जंझावतो, संघर्ष को झेलने, उसमे शामिल रहने और इस मांग को कांग्रेस पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में शामिल कराने के बावजूद उन्हें कड़े संघर्षों और लम्बी प्रतीक्षा के बाद प्रदेश के आठवें मुख्यमंत्री के ताज पहनने को मिला. हरीश रावत की खासियत है की वे पहाड़ की नब्ज को पहचानते हैं. वहां की हर समस्या, वहां के भूगोल और जनता के दर्द को भली भाँती समझते हैं उनके समर्थक उत्तराखंड में भiरी तादाद में हैं. हरीश रावत को सरकार चलाने का खासा अनुभव है और वे उत्तराखंड की हर समस्या और उसके निदान के रास्ते भी बाखूबी जानते हैं. आखिर उन्होंने मौजूदा मुख्यमंत्री के पद के लिए एक ग्राम प्रधान से शुरुआत कर ४० वर्षों के संघर्ष का लम्बा सफर जो तय किया है. उनके राजनैतिक विरोधी चाहे वो सतपाल महाराज रहे हों या फिर विजय बहुगुणा , आज पूर्ण रूपेण धराशाही हैं. उत्तराखडं की राजनीती में हरीश रावत की पकड़ ठीक उतनी ही मजबूत है जैसे केंद्र में मोदी की अपनी सरकार पर पकड़. लेकिन क्या इन सब खूबियों और सकारात्मकता के बावजीद उनका काम काज ठीक चल रहा है. ये एक बहुत बड़ा सवालिया निशाँ है. रावत आज उत्तराखंड में बेहद मोबाइल हैं, सक्रिय हैं. नयी नयी योजनाओं के जनता को सब्जबाग दिखाकर उन्हें अपनी और आकर्षित करने के रोज नए नए रास्ते तलाश रहे हैं. उन्होंने पहाड़ की भ्रष्ट अफसरशाही को भी सक्रीय करने और उसपर शिकंजा कसने में काफी सफलता दर्ज़ की है. लेकिन क्या वह सब कुछ ठीक ठाक है. कहने वाले कह रहे हैं की रावत इन दिनों अपने ख़ास सिल्पेसलार और चाटुकारों से घिरे हैं और उन्होंने राज्य में साशन को पूर्ण रूपेण व्यक्तिवादी साशन में परिवर्तित कर दिया है, जहाँ मंत्रीगणों की भूमिका लगभग नगण्य है. भले ही राज्य में विकास के कितने बड़े दावे क्यों न किये जा रहे हैं, लाखों करोड़ों रुपये के विज्ञापनों के माध्यम से जनता जनार्दन को ढेरों उपलब्धियां गिनाई जा रही हो लेकिन बहुत ही दुःख के साथ कहना पड़ता हैं की जिस अवधारणा के लिए वर्षों के संघर्षों के बाद उत्तराखंड राज्य अलग अस्तित्वा में आया हमारे राजनैतिक हुकमरानों की भाई भतीजावाद, अवसरवादिता, अकर्मण्यता, जनविरोधी और भ्रष्टारोन्मुख नीतियों के चलते पहाड़ों से आज भी बेतहाशा पलायन जारी है. त्तiजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य बनने के १४ वर्षों के दौरान लगभग बीस लाख पर्वतवासियों ने shaहरों की तरफ पलायन किया. जबकि राज्य बनने से पहले ये पलायन की गति काफी धीमी थी. जाहिर बात हैं की उत्तराखंड में गुणवत्ता युक्त शिक्षा के आभाव, स्वस्थ्य सेवाओं के न होने और रोजगार के अवसरों की नागुंजायश के चलते पहाड़ का नवयुवक बहुत ही तेजी से शहरों की तरफ पलायन कर रहा है. आंकड़ों के मुताबिक लगभग 60 फ़ीसदी युवक गाओं से पलायन करता हैं जबकि शेष ४० फीसदी पहाड़ के शहरों से सम्बद्ध हैं. इतनी बड़ी संख्या में पलायन यही साबित करता है की पिछले १४ वर्षों के दौरान उत्तराखंड में शासनरत भाजपा और कांग्रेस की सरकiरें बुरी तरह असफल ही साबित हुई हैं. ये जान कार हैरानी होती है की राज्य के अस्तित्व में आने के बाद अiठ बार सरकारें बदली हैं. प्रदेश में हमेशा राजनैतिक अस्थिरता का वातावरण रहा जिसके चलते वहां के आर्थिक, सामाजिक, औद्योगिक, शैक्षणिक और स्वiस्थ्य सम्बन्दी विकास सही ढंग से सिरे नहीं चढ़ पाया और जनता , खासकर पढ़ा लिखा तबका शेहरों की चकाचौंध में रोजगार, स्वस्थ्य सुविधाओं और शिक्षा के दृष्टिकोण से महानगरों की ओर रुख करता रहा. यदि सही अर्थों में हम ये कहें की राज्य बनने कa असली फायदा पहाड़ों के ठेकेदारों, भ्रष्ट अधिकारीयों, बिल्डर माफियाओं , खनन माफियाओं और राजनेताओं को हुआ तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी. जिन नेताओं के पास उत्तराखंड के पृथक अस्तित्व में आने के बाद एक साइकल तक नहीं होती थी आज उनके बड़े बड़े बंगले, होटल और पीजैरो गाड़ियों का काफिला उनकी शान में चार चाँद लगा रहा है. अगर ईमाnदारी से आज उत्तराखंड के राजनेताओं की सम्पति का लेख जोखा लिया जाy तो ये बात कहने में कोई हीचकिचाहat नहीं होगी की वहां का प्रत्येक राजनेता कथित तौर पर आज करोड़ों का मालिक है. खैर, सच बात तो ये है की पहाड़ आज खुले आम लूट रहे हैं, और वहां के पर्यावरण का खुलेआम चीरहरण हो रहा है. आज वहां खनन जोरों पर चल रहा है, नदियों पर बड़े बान्धों के नाम पर वहां के पर्यावरण के साथ बलात्कार जारी है, नदियों के किनारे हो रहे गैर वैज्ञानिक कंस्ट्रक्शन से जनता कee जान सांसत में हैं, बड़े बाँध के नाम पर पहाड़ों की ऐतिहासिक नदियों की धiरा को रोकने का काम चल रहा है, वहां जंगलों का अन्दiधुन कटान जारी है और विकास के नाम पर सड़कों के निर्माण की आड़ में लाखों डायनामाइट एक्सप्लोषंस हो रहे हैं जिसके चलते पहाड़ खhoकले और हरियाली विहीन हो रहे हैं. केदारनाथ की त्रासदी को इसीलिए मानवजनित आपदा की संज्ञा दी जा रही है. पहाड़ों में अछि शिक्षा, स्वस्थ्य सेवाओं के आभाव के चलते लगभग ३०० गाँव पूरी तरह से खiली हो चुके हैं और करीब डेड हज़ार गाओं लघभग खiली होने की स्थिती में हैं. पहाड़ों के शहरों का तो विकास हो रहा है. वहां बiहरी पूंजीपतियों को औने पौने दामों पर जमीने तो दी जा रही हैं उद्योगों के लिए, लेकिन क्षेत्रीय जनता को इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा. सारे रोजगार के अवसर बाहरी लोगों की झोली में जा रहे हैं. गाॉवों में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के आभाव और वहां से निरंतर हो रहे पलायन के मध्येनजर लगभग ९०० प्राथमिक विद्यालयों को जबरन बंद करना पड़ा. पहाड़ों में कानों व्यवस्था के चौपर होने से वहना आये दिन हत्याओं का दौर जारी है. बाहरी अपराधी उत्तराखंड को सबसे सुरक्षित डेस्टिनेशन मान कर यहाँ पलायन कर रहे हैं और अपनी अपराधिक गतिविधियाँ जारी किये हुए है. यहाँ का पुलिस प्रसाशन लगभग अकर्मण्य है और अपराध रोकने के मामले में पूर्णतया अक्षम है. यही वजह है की दुनिया के नक़्शे में धार्मिक पर्यटन, ईको पर्यटन के बड़े बड़े बखान करने वाले उत्तराखंड में आज भी टूरिस्टों का आभाव है. कुल मिलकर यदि ये कहा जाe की उत्तराखंड पृथक राज्य बनने के बाद पलायन को बढ़ावा देने का कारण बना तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आज यदि उत्तराखंड को सही मायनो में तरक्की करनी है और पलायन को रोकना है तो वहां शिक्षा के अवसर, राजगार के अवसर और स्वस्थ्य सेवाओं में बड़े पैमाने पर सुधार करना होगा. राज्य जिस अवधारणा के लिए अस्तित्व में आया उसे सही अर्थों में अमलीजामा पहनना होगा और वह तभी संभव है जब सरकir और उसके नुमाइंदे पूरी ईमानदारी, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ वहi के पढ़े लिखे युवकों, वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, और सही सोच रखने वाले लोगों को सरकार में भागीदारी प्रदान करेगी. वरना आने वाले दिन पहाड़ के liye और ही विनाशकारी साबित होंगे.
सुनील नेगी
अध्यक्ष उत्तराखंड जर्नलिस्ट्स फोरम
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