के जल रही थी आग एक चमन था फूलों का
नज़र नहीं आता नज़ारा जलते चूल्हों का
कुछ खौफ़ हैं खाए अब दिया कौन जलाए
उसकी ही लपट ने मेरा आँगन जला दिया.
जो हुआ करती थी इबादत उस लौ से कभी
उस मूरत को खंडित करके कल मोल लगा दिया
आँख भी थी आवाज़ भी थी राहों की आगाज़ भी थी
अपनों ने नैन मूँद लिए आवाज़ को कुछ ने दबा दिया.
ऐसा नहीं था के सन्नाटा था
भीड़ भी थी इंसान भी थे
पर हाथ जलाये कौन अपना
कुरसी कैसे पकड़ेंगे
हाथ सेक कर चले गए.
कुछ लक्ष्मी के भक्त थे
कुछ ने मौन व्रत था ग्रहण किया.
जो आज़ाद न था ये देश गैरों के हाथों लुटता था
अब अपनों का अम्बार है
पर अपनों की गुहार है
जो था बड़ा नायाब कितना राख बना दिया.
आओ फिर से करें फ़क्र ये ही वो हिंदुस्तान है
पाए जाते कम इंसान हैं
रोज़ है यहाँ आबरू लुटती-रोज़ कितनी बली हैं चढ़ती
कहीं बच्चों में भी शैतान है
कुछ बूढ़े भी हैवान हैं
एक औरत को आज़ाद किया
एक को आघात किया
हाँ इस चमन के ही तो चिराग थे
के अपना आँगन जला दिया.
एक ऐसा अंधकार किया
के डरता है जलता दिया
RICHA
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